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तुम्हें पता है?

तुम्हे पता है? हर गुज़रते क्षणों को देख अनायास ही झुंझला जाती हूँ घड़ी की बढ़ती सेकेण्ड मिनट और घंटे की सुईयों के साथ बढ़ती चली जाती है मेरी खीझ, हताशा और मेरा रोष तब सहज ही भान होता है हताहत होती मेरी भावनाओं का निःसहाय मूक होती संवेदनाओं का कैसे.... आखिर कैसे तुम नहीं समझ पाते मेरी कही अनकही बातों को वक़्क्त चाहिये तुम्हें? अंततः किस बात के लिए वक़्क्त? - मुझे संभाल सको उसके लिए या मात्र एक नए छलावे को - गढ़ और बुन मुझपर आरोपित कर सको घर के खाली कमरों को देख ये ख्याल भी मन मे कौंध जाते हैं - कि खाली हो रहा है मेरे ख़ुशनुमा जज्बातों का खजाना हर खिसकते खोते पल के साथ एक ही ख्याल सच मन को रौंध जाता है की.......तुम नहीं वजह नहीं जानना मुझे या जानती हूँ...... किन्तु बेज़ान व शिथिल हो रहे मेरे देह  के भीतर का अबोध अचेतन मन नहीं स्वीकारना चाहता सत्य को नहीं स्वीकारना चाहता - सत्य के किन्हीं कारणों को ... वह तो केवल रुष्ट है व्याकुल है हताश संग निराश है जहां तुम हो सकते थे.... पर हो नहीं.... देहरी में सुने चप्पलों की कतार , घर के खाली कमरें , बेपरवाह घड़ी...