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यात्राओं की संगिनी

एक दिन हवाओं में केवल  विचार तैरेंगे  विचार , जो उत्पन्न तो होंगे  किंतु किसी मस्तिष्क द्वारा अवशोषित न हो पाएंगे एक दिन बिन लोके  ज्ञान पक कर गिरते मिलेंगे  भूमि पर बेकार और बर्बाद होते हुए चेतना जड़ होती देखेगी  खजुराहों की निष्प्राण मूर्तियों जैसी पथराई आंखें बस तकती मिलेंगी किसी शून्य की ओर अनवरत रंगों के नाम पर अंत में बचेगी  मात्र स्याही स्याह से रंगा होगा इंद्रधनुष और सदाबहार के फूलों की सारी प्रजातियां पत्थरों से भरी होंगी हथेलियां किसी सभ्यता की दी हुई शगुनाई जैसी अंत के अंतिम दिन कोई आधुनिक मनुष्य  बैठा होगा सुखी नदी के बीचों- बीच बाँच रहा होगा पूरी कमाई का  आखिरी खोटा सिक्का ।

एक दिन

एक दिन हवाओं में केवल  विचार तैरेंगे  विचार , जो उत्पन्न तो होंगे  किंतु किसी मस्तिष्क द्वारा अवशोषित न हो पाएंगे एक दिन बिन लोके  ज्ञान पक कर गिरते मिलेंगे  भूमि पर बेकार और बर्बाद होते हुए चेतना जड़ होती देखेगी  खजुराहों की निष्प्राण मूर्तियों जैसी पथराई आंखें बस तकती मिलेंगी किसी शून्य की ओर अनवरत रंगों के नाम पर अंत में बचेगी  मात्र स्याही स्याह से रंगा होगा इंद्रधनुष और सदाबहार के फूलों की सारी प्रजातियां पत्थरों से भरी होंगी हथेलियां किसी सभ्यता की दी हुई शगुनाई जैसी अंत के अंतिम दिन कोई आधुनिक मनुष्य  बैठा होगा सुखी नदी के बीचों- बीच बाँच रहा होगा पूरी कमाई का  आखिरी खोटा सिक्का ।

मुक्तक संघर्ष

#मुक्तक -   #संघर्ष 🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻किसी झुलसे समय के पृष्ठ की कोई बयानी है। निरा संघर्ष में माँजी हुई सबकी कहानी है। न बच पाई सुकोमल प्रीति तक इसकी सियाही से, हुई क्या दुर्दशा मीरा की ये किसने न जानी है?🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻प्रियंका सिंहPc-google

मुक्तक संघर्ष

#मुक्तक -   #संघर्ष 🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻किसी झुलसे समय के पृष्ठ की कोई बयानी है। निरा संघर्ष में माँजी हुई सबकी कहानी है। न बच पाई सुकोमल प्रीति तक इसकी सियाही से, हुई क्या दुर्दशा मीरा की ये किसने न जानी है?🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻प्रियंका सिंहPc-google

मोह

#मोह  कुछ अव्यक्त, अकथित भावनाएँ  जो पैठती चली जा रहीं लगातार भीतर और भीतर जैसे समुद्र के बीचो बीच गर्त में धकेल दी हो किसी ने  कोई भारी- सी ठोस वस्तु अपना भारीपन लिए धँसता चला जा रहा समुद्र के सीने में।  उम्मीदों का लबादा ओढ़े इच्छाएँ  धीरे - धीरे हताश हो रही, धुआँ होती जा रही  किसी होम से निकलने वाले सुगंधित धुएँ के बजाय शवदाह में चटकती हड्डियों से निकलते धूम्र की तरह  विषाक्त, अशुभ, अमंगल - सा।  हवाओं की शक्ल में बहती हुई उम्मीदें  खिड़कियों - दरवाजों, बियाबान बीहड़ों से होती हुई अपनी वापसी की यात्रा में झुँझलाती हुई  लू के थपेडों - सी आ लगी हैं पीठ, माथे, सीने से आत्मा ज्वर से पीड़ित है सुस्त, दुर्बल, निष्क्रिय  मरणासन्न पर पड़े किसी वृद्ध की भाँति जिसके घटते श्वास के साथ  छूटता चला जा रहा संसार छूटता जा रहा मोह। © प्रियंका सिंह

प्रणय के भाव (मुक्तक)

प्रणय के भाव; तिसपर वेदने ! उर की व्यथा भी है समय का दंश सहकर देह ने ख़ुद को मथा भी है तुम्हारी आस का दीपक हमें झुलसा रहा लेकिन, हृदय के पृष्ठ पर अंकित उभय की रति कथा भी है

घनाक्षरी

#छंद - (#मरहरण_घनाक्षरी) समता की भावना से सजी इस दुनिया में जहाँ देखो वहाँ बस कपट की काली है । क्रोध, क्लेश और मृषा रूपी मैला उपवन जहाँ छल द्वेष स्यात् बने बैठा माली है । खो रही संवेदना से पल्लवित पादपों की, होती हतप्रभ कली, सूख रही डाली है । जिन गुणों हेतु मनु पशु से पृथक रहा आज उन्हें हार पशु-वृत्ति अपना ली है । ©प्रियंका सिंह #छवि - #गूगल