एक दिन
एक दिन हवाओं में केवल
विचार तैरेंगे
विचार , जो उत्पन्न तो होंगे
किंतु किसी मस्तिष्क द्वारा
अवशोषित न हो पाएंगे
एक दिन बिन लोके
ज्ञान पक कर गिरते मिलेंगे
भूमि पर
बेकार और बर्बाद होते हुए
चेतना जड़ होती देखेगी
खजुराहों की निष्प्राण मूर्तियों जैसी
पथराई आंखें बस तकती मिलेंगी
किसी शून्य की ओर अनवरत
रंगों के नाम पर अंत में बचेगी
मात्र स्याही
स्याह से रंगा होगा इंद्रधनुष और
सदाबहार के फूलों की सारी प्रजातियां
पत्थरों से भरी होंगी हथेलियां
किसी सभ्यता की दी हुई शगुनाई जैसी
अंत के अंतिम दिन कोई आधुनिक मनुष्य
बैठा होगा सुखी नदी के बीचों- बीच
बाँच रहा होगा पूरी कमाई का
आखिरी खोटा सिक्का ।
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