#मोह कुछ अव्यक्त, अकथित भावनाएँ जो पैठती चली जा रहीं लगातार भीतर और भीतर जैसे समुद्र के बीचो बीच गर्त में धकेल दी हो किसी ने कोई भारी- सी ठोस वस्तु अपना भारीपन लिए धँसता चला जा रहा समुद्र के सीने में। उम्मीदों का लबादा ओढ़े इच्छाएँ धीरे - धीरे हताश हो रही, धुआँ होती जा रही किसी होम से निकलने वाले सुगंधित धुएँ के बजाय शवदाह में चटकती हड्डियों से निकलते धूम्र की तरह विषाक्त, अशुभ, अमंगल - सा। हवाओं की शक्ल में बहती हुई उम्मीदें खिड़कियों - दरवाजों, बियाबान बीहड़ों से होती हुई अपनी वापसी की यात्रा में झुँझलाती हुई लू के थपेडों - सी आ लगी हैं पीठ, माथे, सीने से आत्मा ज्वर से पीड़ित है सुस्त, दुर्बल, निष्क्रिय मरणासन्न पर पड़े किसी वृद्ध की भाँति जिसके घटते श्वास के साथ छूटता चला जा रहा संसार छूटता जा रहा मोह। © प्रियंका सिंह