#बेवजह_का_समर्पण

आज फिर तुम्हारी गुमसुम आँखे बोल उठी हैं...
आँसुओं की धार,रहस्य तेरे हिय का खोल बैठी हैं..
कब तक तकलीफों की कड़वी घुंट पियोगी..
कब तक तुम यूं ही एक टूक जियोगी...
जरूरी तो नहीं हर परिस्थितियॉ सामान्य हो..
जरूरी नहीं कि तुम्हारा हर त्याग समाज को मान्य हो..
हृदयहीन ये समाजिक लोग तो अंधे हैं..
नारीयों को त्यागीमूर्त बनाना,
इनके चिरकालीन गतिशील धंधे हैं...
बेवजह का समर्पण छोड़ दो....
अपने भाग्य से जुड़े ,दुर्भाग्य की कड़ीयॉ तोड़ दो...
उठो,लड़ो..ताकी परिवर्तन की आशाऐं जिन्दा हो..
जरूरी है कि...
समाज भी अपनी दोहरी मानसिकता पर शर्मिंदा हो...
©प्रियंका सिंह

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