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Showing posts from May, 2017

#जिंदादिली

-------------------------------------------------- #जिंदादिली_से_गले_मिले ======================== सुना है लौट आए हो तुम यूँ बिन बतायें,कहाँ हुऐ थे गुम? मेरी कोई बात गर थी खली तो कह दिया होता,तूने छोड़ी क्यों हमारे बचपन की गली? चलो छोड़ो.... जो अब तुम वापस आए हो, तो बताओ.... मेरे लिए शहर से क्या लाए हो,? याद है.... हम कैसे साथ में पढ़ते थे, एक साइकल की सवारी को हमदोनो आपस में ही लड़ते थे, याद है... वो गिल्ली-डंडा, नहर की पानी से गीली शर्ट जिसे सुखाते थे हम हर बार बना कर झंडा.. तू क्या गया बंद हो गए सारे अड्डे लगाते थे जो हम पीपल के तले कहने को ... हम इतने दिनों बाद मिलें अब भी मानो अधूरे से है- हमारी सारी तकरारों के सिलसिलें चल छोड़... भूल कर सारे नोंक-झोंक भूल पुराने शिकवें-गिलें आओ फिर से एक बार जिंदादिली से गले मिलें... ------------------------------------------------------ नाम- प्रियंका सिंह

#हम_भी_बच्चे_बन_जाए

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मंद मंद बयार में झूमती कैसे, देखो ये अमिया की डाली... उछलूँ, कूदूं सेंध लगाऊं पर हर बार हाथ रह जातें खाली दुरी इतनी के बस देख देख मन ललचाये.. इन डालियों की भी खूब शैतानी तनिक एक आम भी ना टपकाए.. मन में ही खुश हो लेती हूं सोच- पके आमों की रस भरी थाली.. सचमुच फलों के इस राजा की है बात ही कुछ निराली.. जी में आता है - ताऊ के बगीचे के आम चुरा कर सारे सरपट दौड़ लगाये.... वयस्कता की चादर छोड़ फिर से बच्चों की तरह , हम भी बच्चे बन जाएं.... ©प्रियंका सिंह फोटो: साभार गूगल

#बूढी_हंसी

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#बूढी_हंसी तेरी बूढी हंसी में ,अब वो बात नहीं रही.. बयां तो कर मन की- चाहे हो वो ,दो टूक अल्फ़ाज़ ही सही.. खामोशियों के इस बियाबान में - तू घूम क्यों रहीं... व्यथाओँ को बता कर,पल भर को- खुल के झूम तो सही.. भावी इंसानो की सभा में भावनाओ की , ऐसी दुर्गति,कोई कैसे सहे.. ये कौन किससे कहे कि- हम इंसानों में , अब इंसानी जज़्बात नहीं रहें.. ©प्रियंका सिंह फ़ोटो: साभार गूगल

#दही_चीनी

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तेरा ख्याल आता है- तो याद आती है माँ... तुझसे जुड़ी हर याद वो भीनी भीनी याद आती है - तेरी हर बात याद आती है -तेरी हर  डांट तेरा वो मुस्कुराकर मेरा माथा सहलाना कभी मेरी ज़िद को अपनी बातों से बहलाना याद आती है माँ तेरी हर सीख तेरी हर बोली याद आती हैं तेरे पैरों पर डाल गुलाल , तेरे संग बीती हर एक होली... याद आती है माँ मेरी हर एक शरारत पर तेरा वो झूठ का गुस्सा, उस गुस्से से मुझे ठगना याद आती है माँ..मेरी पढाई में , तेरा यूँ देर रात तक जगना.. याद आती है तूझसे जुड़ी, हर बात वो भीनी भीनी तेरी हाथों की बनी , मीठी अमचूर की गोली तेरे हाथो से खिलाई वो दही चीनी... ©प्रियंका सिंह साभार गूगल

#एक_बयानी_निर्भया_की_जुबानी

#एक_बयानी_निर्भया_की_जुबानी आखिर साढ़े चार साल बाद मुझे इंसाफ मिल ही गया माँ-पापा चेहरे पर संतोष का एक शून्य भाव खिल ही गया याद है मुझे ..... उस दिन जो हुआ वो सिर्फ अपराध नहीं था इंसान की शक्ल लिए,खूंखार पशु-सा, बस के उस डिब्बे में.. जघन्य से जघन्यतम श्रेणी का कृत्य कहीं था हर एक नोच, खसोट के बाद, बात जब मुझे बीच सड़क पर फेकने की आई .. 'अब छुटूंगी इस चंगुल से -' इस आश में मेरी आह भर आई ... कहने को उस चौराहे पर सब खड़े थे, पर कोई न था ऐसा जो इंसानियत के नाम ही सही अपना कह सके.. किसी के दुप्पटे या चादर की इतनी भी चौड़ाई ना थी , जो मेरा नग्न शरीर ढंक सके... कोई ना आया पास उठाने, एक मदद का हाथ बढ़ाने.. उस लोहे के छड़ से न जितने गहरे घाव मिले थे , उससे भी अधिक कष्टदायक चौराहे खड़े लोगो के भाव मिले थे.. वो तकलीफें ऐसी थी कि किसी से कुछ कह ना पाई पीड़ाओं से लड़ते लड़ते,मैं कष्टों को सह ना पाई... आखिर 29 की उस रात को मैंने दम तोड़ दिया... निर्दयी इस इंसानो की बस्ती से मैंने अपना मुह मोड़ लिया... साढ़े चार साल की इस न्यायिक अवधि में एक बार नही हर रोज़ मरी थी... शायद अब उन स...

#खिलौनें_वाली_बूढ़ी_काकी

#खिलौनें_वाली_बूढ़ी_काकी कौन जाने,और कितना बल शेष है ? बूढ़ी हड्डियों का ढांचा है या बस बूढ़ापे का कोई छद्मवेश है... कौन जाने,कहाँ से संजोया है- इतनी आत्मशक्ति... जीवन के इस अंतिम चरण में, ओ..खिलौने वाली बूढ़ी काकी तुम्हारी ये बूढ़ी हड्डियां- क्या नहीं थकती?... कभी सोचती हूँ.. होगी तुम्हारी कोई मज़बूरी शायद इसीलिए चैन और आराम से तुम्हारी इतनी है दुरी .... बताओ जरा...कहाँ से लाती हो तुम इतनी ऊर्जा?.. क्या घर का भार उठाने वाला, कोई नहीं है दूजा? "ओ रे बोटियां... ऊपरवाले ने ही सुनी कर दी मेरी पूरी बगीया.... बस मैं ही हूँ मेरी, और कोई नहीं, जिससे कर सकूँ मन की दो बतिया.. मान ले तो ये खिलौने बेचना ही मेरी जीविका है मान ले तो ये खिलौने बेज़ान ही मेरी सखियाँ है.." ©प्रियंका सिंह

#निराला_की_कविता_में_वो_तोड़ती_पत्थर_मजदुर_दिवस

#मजदुर_दिवस_ #दिवस_बेबसी_का #निराला_की_कविता_में_वो_तोड़ती_पत्थर चलो मनाए .... श्रमजीवियों के लिए, 'मजदूर दिवस' जो आज भी हैं कई, किस्तों में बेबस कोई सिर ऊपर छत पाने को अपना खून जलाता है... कोई 'दो साँझ की रोटी' खाने को क्षमता से अतिवजनी ठेला,रिक्शा चलाता है... कहीं श्रमिक महिलाओं से होता भेदभाव है... कहीं एक परिवार सड़को के किनारे, मज़बूरी की इमारतों से, बसाता अपना गांव है... कहीं लाचारी की घटती ही नहीं गहराई है कहीं ताक पर रखी ..बच्चों की पढाई है हर कोई अपनी जिजीविषा के लिए, श्रम और मजदूरी को तत्पर है.. शायद इसलिये... "निराला" की कविता में, इलाहाबाद के पथ पर "वो तोड़ती पत्थर" है.. हर पक्ष का दूसरा पहलू क्यों देता नहीं हमें दिखाई है.. चलो हर बार की तरह दिखावे के इस दिन की तुम्हे बधाई है... ©प्रियंका सिंह