#निराला_की_कविता_में_वो_तोड़ती_पत्थर_मजदुर_दिवस

#मजदुर_दिवस_
#दिवस_बेबसी_का
#निराला_की_कविता_में_वो_तोड़ती_पत्थर

चलो मनाए ....
श्रमजीवियों के लिए, 'मजदूर दिवस'
जो आज भी हैं कई, किस्तों में बेबस
कोई सिर ऊपर छत पाने को
अपना खून जलाता है...
कोई 'दो साँझ की रोटी' खाने को
क्षमता से अतिवजनी
ठेला,रिक्शा चलाता है...
कहीं श्रमिक महिलाओं से
होता भेदभाव है...
कहीं एक परिवार सड़को के किनारे,
मज़बूरी की इमारतों से,
बसाता अपना गांव है...
कहीं लाचारी की घटती ही नहीं गहराई है
कहीं ताक पर रखी ..बच्चों की पढाई है
हर कोई अपनी जिजीविषा के लिए,
श्रम और मजदूरी को तत्पर है..
शायद इसलिये...
"निराला" की कविता में,
इलाहाबाद के पथ पर
"वो तोड़ती पत्थर" है..
हर पक्ष का दूसरा पहलू
क्यों देता नहीं हमें दिखाई है..
चलो हर बार की तरह
दिखावे के इस दिन की तुम्हे बधाई है...

©प्रियंका सिंह

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