#एक_बयानी_निर्भया_की_जुबानी

#एक_बयानी_निर्भया_की_जुबानी

आखिर साढ़े चार साल बाद मुझे इंसाफ मिल ही गया
माँ-पापा चेहरे पर संतोष का एक शून्य भाव खिल ही गया
याद है मुझे .....
उस दिन जो हुआ वो सिर्फ अपराध नहीं था
इंसान की शक्ल लिए,खूंखार पशु-सा,
बस के उस डिब्बे में..
जघन्य से जघन्यतम श्रेणी का कृत्य कहीं था
हर एक नोच, खसोट के बाद,
बात जब मुझे बीच सड़क पर फेकने की आई ..
'अब छुटूंगी इस चंगुल से -'
इस आश में मेरी आह भर आई ...
कहने को उस चौराहे पर सब खड़े थे,
पर कोई न था ऐसा
जो इंसानियत के नाम ही सही अपना कह सके..
किसी के दुप्पटे या चादर की इतनी भी चौड़ाई ना थी ,
जो मेरा नग्न शरीर ढंक सके...
कोई ना आया पास उठाने, एक मदद का हाथ बढ़ाने..
उस लोहे के छड़ से न जितने गहरे घाव मिले थे ,
उससे भी अधिक कष्टदायक चौराहे खड़े लोगो के भाव मिले थे..
वो तकलीफें ऐसी थी कि किसी से कुछ कह ना पाई
पीड़ाओं से लड़ते लड़ते,मैं कष्टों को सह ना पाई...
आखिर 29 की उस रात को मैंने दम तोड़ दिया...
निर्दयी इस इंसानो की बस्ती से मैंने अपना मुह मोड़ लिया...
साढ़े चार साल की इस न्यायिक अवधि में एक बार नही हर रोज़ मरी थी...
शायद अब उन सभी निर्भयाओं को उम्मीद मिले
जिनके साथ मैं ,मेरे साथ जो हर रोज़ खड़ी थी...

©प्रियंका सिंह

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