#जब_कभी_विच्छिन्न_होते_हैं_स्वप्न
टूट जाती है अनगिनत चींजें
बोझिल होकर भीतर ही भीतर
निकलती है व्यथित सी आहें
जब कभी विच्छिन्न होते हैं स्वप्न
जिन्हें मृदु भावों से लपेट,सहेज
सहलाती हैं उम्मीदें हर बार
यथार्थमयी खुरदुरी हथेली से
टूट जाने की पीड़ा से तिलमिला कर
ढहती है अंतर्मन की सजीली मीनारें
एक एक कर नहीं ,अपितु एक साथ
तब होते है कोलाहल से बहुत दूर
विलीन होने की मौन साधना में लीन
अंतःकरण की मीनारों के -
धराशायी हो चुकें प्रत्येक मलबे
उठती है धूल भी तीव्रतम आवेग में
कणों में क्रोध की तपिश लिए
तिलमिलाहट की व्याकुलता में -
करते हैं विचरण
बौराये हुए विषाक्त कीट की भाँति
टूटी आशाओं की कंद्राओं से -
निकलती हैं भयावह सी चीखें
चाहती हैं चोटिल करना -
तैरते विषाक्त कणों के मध्य
आने वाले प्रत्येक जीव को
अंतश में त्याग उर के शेष समस्त भाव
होते है सम्मिलित शून्य होने की प्रक्रिया में
और आ गिरते है शून्य की धरा पर
अंततः अपनी ही वेदनाओं की-
ऊहापोह से परास्त होकर
#प्रियंका_सिंह
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