भारती की गरिमा

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बुद्धिजीवियों से शोभे,
देश के हैं सारे कोने
सत्य विषयों की गाथा
पढ़ता न कोई है

गढ़े निज नियमों की
परिपाटी चल पड़ी
कुशल समाज रूप
गढ़ता न कोई है

हृदय को भेदती जो
नभ तक गूँजती वो
पीड़ितों की चीख़ ध्वनि
सुनता न कोई है

अधरों को सिये खड़े
खोल दृग टाँके पड़े
भारती की गरिमा को
चुनता न कोई है

निसदिन आशाओं के
जलाशय सूख रहे
अविरल प्रेम नीर
भरता न कोई है

पापों की जो गगरी है
प्रतिपल भर रही
आने वाले वक़्त से क्यों
डरता न कोई है

ज्ञानी तम राह चले
द्वेष आवरण ओढ़े
ज्ञानघट फूटा पड़ा
जोड़ता न कोई है

कहने को कहते है
आधुनिक बन रहें
पाले बैठे भ्रम जिसे
तोड़ता न कोई है

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प्रियंका सिंह
पुणे (महाराष्ट्र)

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