तुम जा सकते हो- निःसंदेश !
सांझ की मुंडेर पर बैठा
अपने साज -ओ- सामान को समेटते हुए
अस्त होने को तैयार
सूर्य को संकुचित आँखों से
निहारा था एकटक
निहारने का क्रम द्विपक्षीय हो
ये अनिवार्य नहीं
न ही किसी मानक के रूप में
कहीं पाया कि संवाद में
दूसरे पक्ष की सक्रियता
भी होती है अनिवार्य
कभी शब्दों के अभाव में
संवाद की एक लंबी प्रक्रिया
भी स्वतः ही हो जाती है पूरी
उस निहारने कि क्रिया
के प्रतिक्रिया स्वरूप
ज्ञात हुई बड़े ही उबाऊ ढंग से
एक इच्छा -
"अगले दिन से उदित न होने की"
कई बार स्वभाव की अधीरता
अव्यवस्थित कर देती है
सम्पूर्ण व्यक्तित्व को
कई बार कई जुमले जैसे
बन जाते हैं जीवन का अभिन्न हिस्सा
"किसी के न होने मात्र से नहीं रुकता
कभी किसी का कोई समय "
निरंतर चलते मौन संवाद में
एक प्रतिउत्तर ऐसा भी रहा कि-
"जा सकते हो तुम "
यदि जाने के पूर्व हो सकते हो
पूर्णतः निश्चिंत कि
तुम्हारे पीछे भी रह लेगी सम्पूर्ण धरा
पूर्व की भाँति फूलित - फ़लित
तो क्या हुआ ?
जीवित जगत में एक मिथक यह भी-
की मृत कणों में प्राणों का संचार
करते आए हो केवल मात्र तुम ही
यदि संभव हुआ तो शायद
तुम्हारी अनुपस्थिति में
ले ही लेगा कोई अन्यत्र
तुम्हारी जगह
जिसे एक प्रबुद्ध वर्ग
बड़ी ही सहजता से कह देता है -"फिलर"
यदि कर सकते हो अनदेखा
इन तथा कथित मिथकों को तो
तुम जा सकते हो
निःसंदेह
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