लघुकथा(मौसम)
१४/७/१७
#लघुकथा
#विषय- #मौसम
आज फिर मौसम बहुत खराब हुआ पड़ा था..कहीं बाहर दूर दराज के आसमानों में नहीं बल्कि शीतल के मन मे .मन में आज फिर कई भवनाओं के बादल आपस में टकरा रहे थे जिससे जन्मी बिजली सी कड़क आवाज खाली पड़े घर में किचन के बर्तनों को जोर जोर से पटकने के रूप में आ रही थी ।जैसा कि हर बार होता आया साथ ही स्थियों के जायजे से समझ आ रहा था कि थोड़े ही देर में मन के बिगड़े इस मौसम में आँसुओ की बरसात होने ही वाली है ,हो भी क्यों ना आज फिर शीतल का मन आहत हुआ था - पर उसमे नया क्या था वो तो रोज ही होता है रोज़ ही मौसम(मन) खराब होते है रोज़ ही बरसात(आँसू) होती है।".....क्या मैं इंसान नहीं, क्या मुझमे कोई भावनाएं नहीं ....क्यों बार बार वो ये जताते है कि मैं बस घर के काम के लिए ही हूँ ..अरे लोग जब अपने घर मेहरी भी रखते है तो बकायदा इज्जत के साथ उसे पगार देते है पर मेरी तो यहाँ उससे भी बुरी हालत है ...क्यों जीना ऐसी जिंदगी जहां अपने लिए घंटे में से एक सेकंड भी नहीं ..इज्जत तो दूर की बात दो मीठी बोल सुनने को कान तरस जाते है" उमड़ते घुमड़ते मन के बादलों से आंसुओं की बरसात मानो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी कि तभी डोर बेल की आवाज.."रुकिए जरा अभी आई ....."। रोज की तरह आँचल से खारे बरसाती बूंदों को सुखाती हुई ...खिली धूप सी मुस्कान लिए दरवाजे की ओर दौड़ पड़ी..। दरवाजा खोलते ही अगली आवाज दिनेश की थी ---"क्या बात है बड़ी फ्रेस दिख रही हो..." किनारे से गुज़रते दिनेश को एक टक देखती हुई शीतल मन में कहती है -" बस अभी अभी मन के मौसम में जबरन काले खारे बदलो को धकेल कर सुनहली धूप खिलाई है ताकि फिर उम्मीद भरे एक नए दिन की शुरुआत हो सके ...।."
,✍स्वरचित
#प्रियंका_सिंह
#लघुकथा
#विषय- #मौसम
आज फिर मौसम बहुत खराब हुआ पड़ा था..कहीं बाहर दूर दराज के आसमानों में नहीं बल्कि शीतल के मन मे .मन में आज फिर कई भवनाओं के बादल आपस में टकरा रहे थे जिससे जन्मी बिजली सी कड़क आवाज खाली पड़े घर में किचन के बर्तनों को जोर जोर से पटकने के रूप में आ रही थी ।जैसा कि हर बार होता आया साथ ही स्थियों के जायजे से समझ आ रहा था कि थोड़े ही देर में मन के बिगड़े इस मौसम में आँसुओ की बरसात होने ही वाली है ,हो भी क्यों ना आज फिर शीतल का मन आहत हुआ था - पर उसमे नया क्या था वो तो रोज ही होता है रोज़ ही मौसम(मन) खराब होते है रोज़ ही बरसात(आँसू) होती है।".....क्या मैं इंसान नहीं, क्या मुझमे कोई भावनाएं नहीं ....क्यों बार बार वो ये जताते है कि मैं बस घर के काम के लिए ही हूँ ..अरे लोग जब अपने घर मेहरी भी रखते है तो बकायदा इज्जत के साथ उसे पगार देते है पर मेरी तो यहाँ उससे भी बुरी हालत है ...क्यों जीना ऐसी जिंदगी जहां अपने लिए घंटे में से एक सेकंड भी नहीं ..इज्जत तो दूर की बात दो मीठी बोल सुनने को कान तरस जाते है" उमड़ते घुमड़ते मन के बादलों से आंसुओं की बरसात मानो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी कि तभी डोर बेल की आवाज.."रुकिए जरा अभी आई ....."। रोज की तरह आँचल से खारे बरसाती बूंदों को सुखाती हुई ...खिली धूप सी मुस्कान लिए दरवाजे की ओर दौड़ पड़ी..। दरवाजा खोलते ही अगली आवाज दिनेश की थी ---"क्या बात है बड़ी फ्रेस दिख रही हो..." किनारे से गुज़रते दिनेश को एक टक देखती हुई शीतल मन में कहती है -" बस अभी अभी मन के मौसम में जबरन काले खारे बदलो को धकेल कर सुनहली धूप खिलाई है ताकि फिर उम्मीद भरे एक नए दिन की शुरुआत हो सके ...।."
,✍स्वरचित
#प्रियंका_सिंह
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